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मुपयोक्ता पापभाक् कथं न भवति ? वस्तुतः सत्यमेतद् यद् षड्जीवनिकायविनाशमन्तरा भोज्यं न सम्पद्यते तदा महाजीवरक्षका भोजनं कथमुपभुञ्जन्ते ?
समाधानं तावत्-उपयोगलक्षणावश्यककार्यप्रवृत्तिः न कदापि पापाय कल्पते । प्रमादप्रवृत्तिस्तु पापाय ।
उक्तञ्च श्रीदशवैकालिकसूत्रे चतुर्थाध्ययनेजयं चरे जयं चिढ़े, जयमासे जयं सये । जयं भुंजं वा भासंतो, पावं कम्मं न बंधइ ॥ ८॥
* हिन्दी अनुवाद-मूत्तिपूजा के विरोधीजन आक्षेप करते हैं कि अप्काय, तेउकाय, वनस्पतिकाय आदि में अनन्तानन्त जीव हैं, त्रिकालवत्ति लोकालोक के स्वरूप को जानने वाले श्रीजिनेश्वर-तीर्थंकर भगवन्त ने ऐसा प्रतिपादित किया है। फिर अर्चन-पूजन में काम आने पर भी उपयोक्ता को पापकर्म का बन्धन क्यों नहीं होता ? वस्तुतः यह सत्य है कि पृथ्वीकायादि षड्प्रकार के जीवनिकाय के विनाश के बिना भोज्यनिर्वृति नहीं होती तब महाजीवरक्षक भोजनादि क्यों ग्रहण करते हैं ? उसका समाधान यह है कि-यावश्यक कार्यों की प्रवृत्ति के लिए उपयोग-विवेक की आवश्यकता होती है। 'प्रमादाचरणं