________________
संप्राप्त होता है । उनके खुले अङ्गों तथा उपांगों को चित्र में भी देखकर कामुकों की हो नहीं, अपितु तपस्या में लीन तपस्वियों के मानस में भी विकृति उत्पन्न हो जाती है तथा हुई भी है । इस प्रकार यह विषय स्पष्ट होता है कि जड़ चित्र भी प्रबल प्रभाव डालने में सक्षम होता है । व्यावहारिक विश्व जगत् में सभी इसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं ।। ३७ ।।
[ ३८ ]
० मूलश्लोक:
विकारैर्मुक्तानां विजितकररणानां शिवजुषां जिनेन्द्राणां बिम्बं त्रिभुवनगुरूणां स्मितमुखम् । स्मरन् ध्यायन् पश्यन् ध्रुवमिहवरो भव्यपुरुषः, परां शान्ति कि नो श्रयति मनसो मोहशमनीम् ॥ ३८ ॥
5 संस्कृत भावार्थ:- क्रोध-मान- माया लोभादिविकारैमुक्तानां मोक्षपदं प्राप्तानां सर्वसुरासुरनरेन्द्रादिवन्दनीयानां वीतराग-श्रीजिनेश्वराणां प्रसन्न मुखमुद्रायुतं प्रतिबिम्बजिनमूर्ति दृष्ट्वा, स्मृत्वा किं भक्तगणः श्रानन्दसागर निमग्न sa मोहनीय कर्मविनाशिनीं परां शान्ति न प्राप्नोति ? चिरश्च प्रचुरत्वेन प्राप्नोत्येव ।
-५०
,
-