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________________ [ ३६ ] - मूलश्लोकःइयं मूर्तेः पूजा वितरति शिवं कोत्तिममलां , नराणां सद्वाञ्छामिह परभवां पूरयति द्राक् । सुरानर्चन लोको व्रजति परमां पूज्य पदवीं , ततो धार्य कार्य सुरनरपते - रर्चनमलम् ॥ ३६ ॥ + संस्कृतभावार्थ:-एषा मूर्तिपूजा मनुष्याणां निर्मला कोत्ति विस्तारयति, कल्याणमार्ग च वितनोति । मनुष्याणां वर्तमानां परोक्षां वा सद्भावनां सदीप्सितं च सपदि पूरयति । देवपूजनं लोकमपि पूजास्पदं विदधति । अस्मात् कारणात् वोत राग-श्रीजिनेश्वरदेवानां पूजा, अर्चना सदैव मनसा भावनीया विमलेन चेतसा सन्निष्ठया भक्तया श्रद्धया मनोयोगेन शास्त्रोक्तविधिना अवश्यमेव करणोया ।। ३६ ।। * हिन्दी अनुवाद-यह मूर्तिपूजा, मनुष्यों की निर्मल कीत्ति तथा कल्याण के मार्ग को प्रशस्त करती है। मनुष्यों के इस जन्म तथा परभव की अनेकानेक मंगलमयी भावनाओं की पूर्ति अतिशीघ्र करती है। देवपूजा मनुष्यों को भी पूजनीय एवं आदरणीय बना देती है। अतएव वीतराग श्रीजिनेश्वर देवों की पूजा, अर्चना अहर्निश मन में धारण करनी चाहिए तथा श्रद्धा, भक्ति, पूर्णमनोयोग एवं शास्त्रोक्तविधि से अवश्य ही करनी चाहिए ।। ३६ ।।
SR No.002336
Book TitleJinmurti Pooja Sarddhashatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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