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+ संस्कृतभावार्थ:-हे कुतर्ककण्टकाकीर्ण ! मूर्तिपूजाविरोधिन् ! अस्मिन् संसारे के पुरुषाः स्वकीयं सम्मानं नेच्छन्ति । भक्तिभावपरिलसिता भक्ताः यदि विविधैर्द्रव्यर्भावैश्च यदा देवार्चनं कुर्वन्ति तदा तव मानसे कथं दाहः प्रदीपते ? स्वयं परनिन्दा-देवनिन्दादिकं कुर्वन् गर्ने पतन् कथम् अन्यान् अपि पातयसि ? इति ।। ३५ ।।
* हिन्दी अनुवाद-हे कुतर्क के काँटों से प्राबद्ध मूर्ति विरोधी ! तुम स्वयं बतलायो कि, इस संसार में अपना सम्मान कौन नहीं चाहता है ? जब प्रसन्नचित्त, भक्तिभावों के उद्रेक से परिपूरित भक्तगण अपने इष्टदेवों का पूजन-अर्चन, द्रव्य तथा भाव से दृढ़ श्रद्धा-विश्वास से करते हैं तो तुम्हारे हृदय में ईर्ष्या-द्वेष की प्राग क्यों जलने लगती है। अज्ञान की खाई में स्वयं गिरते हुए दूसरों को भी उसमें गिराने का प्रयास क्यों करते हो ? तुम्हारा इस प्रकार का आचरण, किसी की धार्मिक सद्भावना को ठेस पहुँचाना, आगम, निगम तथा शास्त्रसम्मत तो कभी हो ही नहीं सकता। साथ ही लोक-व्यवहार सम्मत भी नहीं है। क्योंकि मनुष्य का आगम के अनुसार अपनी उपासना पद्धति को अपनाना निजी प्राधिकार है ।। ३५ ।।