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[ ३१ ] - मूलश्लोकःइयं मूर्तेरर्चा जडमति - जनरेव रचिता , महत्त्वं यत् तस्यास्तदपि च महामोहजटिलम् । न या ब्र ते मूत्तिः किमपि न विधत्ते जडमयी , कथं कार्या पूजा विमृशतुजनो मीलितदृशा ॥ ३१ ॥
+ संस्कृतभावार्थः-मूर्तिपूजायाः विषये आक्षेपवादिनो वदन्ति एवं यन् मूर्तिपूजा जडबुद्धिभिरेव प्रतिपादिता । अस्या महत्त्वमपि जाड्यजटिलं, अप्रासंगिक तथा अतात्त्विकं मन्दमतिभिः परिवद्धितमिति । मूत्तिरियं स्वयं जडमयी वाक्शून्या च न किमपि करोति न च कत्तु समर्था ? मूर्तिपूजायाः विषये कियज्जाड्यमिति विवेकिभिः विचारणीयम् ।। ३१ ।।।
* हिन्दी अनुवाद-मूर्तिपूजा के विषय में प्राक्षेपवादी विरोधी प्रलाप करते हैं कि-मूत्तिपूजा का प्रतिपादन मन्दमतियों ने ही किया है। साथ ही इसके महत्त्व का प्रदर्शन भा बुद्धि के दिवालियेपन का द्योतक है, अप्रासंगिक तथा अयथार्थ भी। यह मूत्ति स्वयं जड़-पदार्थ निर्मित है। न बोलती है और न ही कुछ भी करने में समर्थ है । इस मूर्तिपूजा के विषय में इनकी मूर्खता का विश्लेषण विवेकीजन स्वयं करें ।। ३१ ।।
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