________________
[पूज्य - श्रीभगवती-शतक-सूत्रम्-३, उद्देश-२, सूत्रम्१४४, १४५, १४६] इत्यादीनि द्रष्टव्यानि । प्रभव्यजीवोऽपि जिनमर्तेः-जिनप्रतिमायाः दर्शनं विधाय सुभगशरीरो भवति । अभव्यात्मा तु दर्शनेनैव अनादिकालतो व्यापृतं कर्मजालं मनोमालिन्यं प्रक्षालयति । अतो भव्यजनैः श्रीजिनेश्वरप्रभोः पूजाऽवश्यमेव विधातव्या ।। ३० ॥
* हिन्दी अनुवाद-पूज्यश्रीव्याख्याप्रज्ञप्ति अपरनाम श्रीभगवतीसूत्र में अन्तिम चौबीसवें जिनेश्वर श्रीमहावीर स्वामितीर्थकर भगवान ने स्वयं भावपूजा के अनधिकारीजनों के कल्याण हेतु तथा श्रीजिनमूति-जिनप्रतिमा में श्रद्धा न रखने वाले अज्ञजनों को सावधान किया है।
[ यदि इस विषय में विशेष अन्वेषण की जिज्ञासा हो तो पूज्य श्री भग० श० सूत्र-३, उ० २, सूत्र १४४ से १४६ तक सविस्तार देखिये] अभव्य व्यक्ति भी जब जिनमूति-जिनप्रतिमा के दर्शन से सुन्दरशरीरी हो जाता है तब भव्यात्मा तो दर्शन-पूजन से अनादिकाल के कर्मजाल एवं मन की अशुद्धि को सहज रूप से प्रक्षालित कर लेता है ।। ३० ॥