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5 संस्कृत भावार्थ:- भावपूजायां न दीपस्यावश्यकता, न सततं घृतबिन्दुप्रक्षेपस्य, न चान्येषां द्रव्याणामपेक्षा, द्रव्यान्तररोधोऽपि नैव । जिनालयस्य जिनप्रतिमायाः वा अपेक्षा नास्ति । श्रतो ज्ञान-विज्ञाननिलयाः विशुद्धबोधानन्द विभूतयो निजितेन्द्रिय ग्रामाः, आत्मारामाऽऽरामस्मरणोत्सुका जिनमयाः सन्तो जिनमाराधयन्ति ।। २७ ।।
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* हिन्दी अनुवाद - भावपूजा में न तो दीपक की आवश्यकता होती है, न घृतबिन्दु-प्रक्षेप की । अन्य सुगन्धित पूर्वकथित द्रव्यादिक की आवश्यकता भी नहीं रहती है । यहाँ तक कि जिनमन्दिर - जिनालय तथा जिनमूर्ति जिनप्रतिमा की भी आवश्यकता नहीं होती है । अतः ज्ञान-विज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित स्थितप्रज्ञ ज्ञानीजन चपल बाह्यमुखी इन्द्रियों को अन्तर्मुखी बनाकर आत्मा के रम्य उद्यान में रमण करने वाले क्रोध - मान-माया लोभ रूपी कषायों को जीतने वाले, कर्ममल को प्रक्षालित करके जिनमय होकर श्रीजिनेश्वरदेव की आराधना करते हैं । यहाँ यह स्मर्तव्य है कि यह भावपूजा परमविशिष्ट ज्ञानियों के द्वारा ही होती है । अल्पज्ञों तथा साधारण
विषयासक्तों
द्वारा
कदापि
सम्भव नहीं
जनों, है ।। २७ ।।
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