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मता बुधजनमरालैः । द्रव्यपूजाः नामसरससुभगसुगन्धितैद्रव्यैः, भावपूजाश्च अनन्ताखण्डानन्दजनकस्य प्रभोर्मङ्गलमयध्यान- गुणगान स्तवनादिभिरायोज्यन्ते सुधिभिः ||२४||
* हिन्दी अनुवाद - मनुष्य चाहे कितनी बार स्नान करके पवित्र होना चाहे तब भी मात्र शारीरिक शुद्धता ही सम्भव है । किन्तु अनादि काल से विविध प्रकार के अन्तःकरण से सम्पृक्त अशुद्धि, कर्मकषायों का शोधन तो श्रीजिनेश्वर प्रभु की पूजा
प्रभुपूजन से ही सम्भव है । को ज्ञानो महापुरुषों और विद्वानों ने द्रव्यपूजा तथा भावपूजा के भेद से दो प्रकार की कहा है । ये दोनों प्रकार की पूजायें सर्वस्व प्रदान करने में पूर्णतया समर्थ हैं ।। २४ ।।
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→ मूलश्लोक:
विरक्ता ये भव्या विमलमतयो विश्वमहिताः,
विभेदं जानन्तो
sat वै जायेत इतो
रमन्ते तां हित्वा
निगमनयनेनैव निगमनयनेनैव सततम् । भ्रमणफलकं बन्धनमलं
,
समरसमये चात्मनि शिवे ।। २५ ।।
5 संस्कृत भावार्थ:- पूजाद्वये को भेदः ? इति विषये
श्रीजिन. - ३
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