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5 संस्कृतभावार्थ:- प्राचीनसमयेऽवधिज्ञानधारिभिर्देवेन्द्रैजिनेन्द्राणां पूजा सम्पादिता । प्रवृत्ता च लोकेऽपि, किन्तु मध्ये महामोहाज्ञानान्धकार - विवेकशून्यैर्मूढजनैविलोपिता । इत्थं कृतप्रयासेऽपि शाश्वतिकं तत्त्वं सर्वथा न विलुप्यते । अवलोकयन्तु भवन्तः स्वयमेव यत् अधुनापि श्रीजिनेश्वरपूजा प्रचलति । त्रयाणामपि लोकानां परमपूज्य श्री जिनेश्वरदेवानां पूजका अगरिणताः परमानन्दपदमवाप्तवन्तः । अतः सुखेच्छुभिः शिवेच्छुभिश्च भव्य पुरुषैः श्रीजिनपूजाऽवश्यमेव विधातव्येति ।। २१ ।।
सत्य,
* हिन्दी अनुवाद - प्राचीन काल में अवधिज्ञानधारी देवेन्द्रों ने परमपूज्य श्रीजिनेश्वर देवों की पूजा विधिपूर्वक की है तथा यह पूजा लोकप्रसिद्ध प्रतिप्राचीन भी है । किन्तु मध्यकाल में कुछ अज्ञानी अविवेकी मूढ़जनों ने इसे विलुप्त करने का असफल प्रयास किया है । शाश्वत तत्त्व कभी छिपा नहीं रह सकता । इसका प्रमाण प्रत्यक्ष है कि श्रीजिनेश्वर भगवान की पूजा आज भी प्रवृत्त है । तीनों लोकों के आराध्य श्रीजिनेश्वरदेव की पूजा करने से असंख्यजन परमसुख, परमपद प्राप्त कर चुके हैं | अतः भविजनों को जिनपूजा अवश्य करनी चाहिए ।। २१ ।।
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