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जिनस्वरूपा तथापि प्रतिनिधिरूपा विराजते । एतेषु चतुर्षु निक्षेपेषु एकैकमुपास्यम् । एकतरस्यापि नोपेक्षा कर्तव्या। एकस्याप्युपेक्षया सम्भवति सम्यक्त्वस्य हानिः । नैतन्मात्रमेव प्राप्तसम्यक्त्वस्यापि उच्छेदापत्तिरित्यप्यवधेयम् ।। १७ ।।
* हिन्दी अनुवाद-देवाधिराज शक्रेन्द्रादि देवों से सदा सेवित ऐसे देवाधिदेव श्रीजिनेश्वर भगवन्तों ने श्रुतकेवली गणधर महाराजाओं तथा तत्त्वदर्शी विद्वानों ने संसार-सागर में बारम्बार डूबते हुए मनुष्यों के अवलम्बन के लिए नाम, स्थापना (प्राकृति-प्राकार), द्रव्य तथा भाव नामक चार निक्षेपों से वीतराग श्री अरिहन्त भगवान की पूजा का प्रकाशन किया है। चार निक्षेपों के माध्यम से की गई श्री अरिहन्त भगवन्तों को अर्चना-पूजा तीनों लोकों के लिए कल्याणकारी एवं पवित्र है। इन चार निक्षेपों में से एक की भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। किसी निक्षेप की उपेक्षा भी सम्यक्त्व की हानि का हेतु बन सकती है ।। १७ ।।
[ १८ ] D मूलसूत्रम्च्युतिजैनेन्द्राणां जननमनघं पापशमनम् , व्रतं दीक्षादानं भवभयहरं मोक्षनिलयम् । परं यत् कैवल्यं त्रिभुवनविकासेऽप्यतिरवि , शिवं भद्रं शान्तं सुखमयमनन्तं निगदितम् ॥ १८ ॥
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