________________
पश्चात् शक्रेन्द्र प्रभु को सादर बहुमानपूर्वक माता के पास लाते हैं, तथा पूर्व प्रदत्त अवस्वापिनी निद्रा एवं प्रभु के बिम्ब का अपनयन करके विधिपूर्वक प्रभु को अत्यन्त कोमल मृदुल शय्या पर सुलाकर माता सहित प्रभु को वन्दनादिकर सपरिवार श्रीनन्दीश्वर द्वीप में जाकर प्रभु के जन्मकल्याणक निमित्तक अष्टाह्निका महोत्सव करते हैं । यह रीति जैनशास्त्रों में प्रचलित, नित्य एवं सुलभ
[ १७ ] - मूलश्लोकःचतुर्भिनिक्षेपै - जगति जनतानन्दजनकः , सदा ध्यानैर्ज्ञान - रमरपति - पूज्यैर्गणधरैः । तथा दिव्यैर्देवैविमलमतिभि - विश्वमहितैः , अजर्या सद्वर्या जिनपतिसपर्या विरचिता ॥ १७ ॥
संस्कृतभावार्थः-सुरपतिपूज्य-भगवतो गणधरैः लब्धप्रतिष्ठविद्वद्भिश्च अस्मिन् संसारसागरे निमज्जितेभ्यो मनुष्येभ्यो नाम-आकृति-द्रव्य-भाव नामकैश्चतुर्भिनिक्षेपरहतां पूजा प्रकाशिता। एषा जिनपतिपूजा त्रिलोकीं पातुं पवित्रीकतु च समर्था । निक्षेपस्तावदन्यस्मिन् अन्यारोपः । जिनमूतिः-जिनप्रतिमा, वस्तुतो नास्ति
--- २३ ---