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________________ . संस्कृतभावार्थः-हे जिनेश्वर प्रभो ! अयं संसारो जन्म - मृत्यु - पीडाना - मुत्पादकः । आत्मीय - जनानां मृदुसम्भाषणादिना बाह्यरूपेणैव रमणीयः प्रतीयते । अनन्ताज्ञानान्धकारतया जीवोऽस्य कटुतरं परिणामं अजानन्. अत्र प्रविष्टो भवति तथा च तव पूजाविरहितः सन् नानाप्रकारकं कष्टमनुभवन् अनेकधापीडितः जन्म-मृत्यु-पीडा संयन्त्रमयेऽस्मिन् संसारे भ्रमतितराम् ॥ १४ ।। * हिन्दी अनुवाद-हे जिनेश्वर प्रभो ! यह संसार जन्म-मृत्यु-पोड़ा का जनक है। आत्मीयजनों के मुदु सम्भाषण एवं व्यवहार से बाह्य रूप में रमणीय प्रतीत होता है। अज्ञान के प्रावरण के कारण जीव-प्रात्मा इसके कटु परिणाम को न जानकर इस संसारचक्र में अनेक प्रकार से पीड़ित, दुःखित एवं खिन्न होते हुए भी आपकी पवित्र पूजा, आराधना नहीं करने के कारण इसी संसारचक्र के पीड़ामय विधान में वारंवार घूमता रहता है ।। १४ ॥ [१५ ] 0 मूलश्लोकःयदा जाताः सर्वे विगतमदमोहा जिनवराः सुमेरौ तान् सर्वानमरपतयो द्राक् समनयन् । समानचुभक्त्या स्नपनविधिना भूरिकुसुमैः , गुणग्रामः रम्यैः स्तवननिकरैः श्रोत्रसुखदैः ॥ १५ ॥ --- २० ---
SR No.002336
Book TitleJinmurti Pooja Sarddhashatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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