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________________ 5 संस्कृत भावार्थ :- हे भव्यात्मन् ! श्रीजिनेश्वरदेवस्य मूर्तेः सान्निध्यमनुष्ठानं वा कुबुद्धि शोधयति । भवभ्रान्तानां चंचलचित्तवृत्तीनां मानसं सुशान्तं निष्क्लान्तं निर्भ्रान्तं वितनोति । अतः सर्वतो भावेन सर्वेष्टसाधिकां सकलक्लेशक्लान्ति भवभ्रान्तिविनाशिनीं सत्तत्त्वप्रकाशिनीं तां जिनमूर्तिमाराधयतु प्राश्रयतु ।। १३ ।। * हिन्दी अनुवाद - हे भव्यात्मा ! श्रीजिनेश्वरदेव की मूर्ति का सान्निध्य तथा श्राराधन दुर्बुद्धियों की बुद्धि को प्रथमदर्शन में ही शुद्ध परिमार्जित कर देता है । संसारसागर में भयभीत तथा चञ्चल वृत्तिवाले मनुष्यों के मानस को भी सुशान्त, प्रशान्त, निष्क्लान्त एवं निर्भ्रान्ति कर देता है । समस्त कष्टों तथा आपद् - विपद् का विनाश करने वाली परम सुखकारी श्रीजिनमूर्ति - जिनप्रतिमा का श्रद्धापूर्वक आश्रय ग्रहरण कर आराधन करो ।। १३ ।। [ १४ ] मूलश्लोक: प्रभोऽयं संसारो जननमरणाताप जनकः " बहिर्दृष्टो रम्यः प्रियजनवरालापभरितः । , प्रजानन् चास्यान्तं कटुतरविकारं जडता प्रविष्टोऽस्मिन् जीवो भ्रमति तव पूजा विरहितः ॥ १४ ॥ १६
SR No.002336
Book TitleJinmurti Pooja Sarddhashatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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