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+ संस्कृतभावार्थः-हे भव्यात्मन् ! एषा श्रीजिनमूर्तिपूजा सर्वेषामपि कुमार्गाणां मूलं कारणं निरोधयति । दुरितानां शान्त्यर्थमपि सुखावहा वर्तते । अतो भवता श्रीजैनागमशास्त्रोक्त : सूक्त : श्रीजैनाचार्यप्रवरैः प्रवर्तितः सरसः शास्त्रोक्तवचनैः सरसभावश्च जिनमूत्तिः जिनप्रतिमा स्वीकार्या। तथा च पूर्वोक्त रेव सुवचनैः ध्येया, गेया, अर्चनीया-पूजनीया, वन्दनीया चेति ।। १० ।।
* हिन्दी अनुवाद-हे भव्यात्मन् ! 'यह श्रीजिनमूत्तिपूजा' सभी प्रकार के कुमार्ग के मूल कारणों का रोधन करती है। पापकर्मों का उपशमन-शमन करने में भी सुखकारी है। अतः आपको आगमशास्त्रों तथा प्राचार्यों द्वारा प्रतिपादित प्रवर्तित सिद्धान्तों तथा प्रामाणिक वचनों से मूति-प्रतिमा को स्वीकार करके, श्रीजैनागम-शास्त्रों की आज्ञा के अनुसार ही श्रीजिनमूत्ति-जिनप्रतिमा का सदैव ध्यान, संकीर्तन, अर्चन-पूजन एवं वन्दन-नमस्कार करना चाहिए ।। १० ।।
[ ११ ] - मूलश्लोकःयदीया सत्सेवा शमशिवसुखं यच्छति सदा , असारे संसारे विविधविधि-विद्या-बलमपि । सुसौख्यं सौभाग्यं सततमभिरामं गुग्गगणां , सुमूत्तिः स्फूर्तिश्चानुपमशुभभावैः श्रय सदा ॥ ११ ॥