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________________ ॐ संस्कृतभावार्थः-हे भव्यपुरुष ! यदि त्वमादिकालात् अन्तश्चेतसि परिव्याप्तमज्ञानरूपिणमन्धकारं विनाशयितुमिच्छति तदा श्रीजैनागमैः शास्त्रैः प्रमाणितां सुसिद्धाम्, स्वनामधन्यै विद्वन्मूर्धन्यै - मुनिराजैः सेवितां गुणागारस्वरूपिणी परमसुखसुविधा-सरितामिव स्फुरन्तीं जिनमूत्ति सादरसरसभावैराश्रयः ।। ६ ।। ॐ हिन्दी अनुवाद-हे भव्यपुरुष ! यदि तुम अनादि काल से विविध जन्म-जन्मान्तरों में अजित अज्ञान रूपी अन्धकार तथा कर्म रूपी मल को सर्वदा सर्वथा दूर करने को अभिलाषा रखते हो तो तुम्हें श्रीजैनागमादि शास्त्रों से प्रमाणित, स्वनामधन्य विद्वन्मूर्धन्य विद्वान् मुनिराजों द्वारा सेवित-आराधित गुण की आगार, परमसुख सुविधा की सरिता के समान स्फूर्तिमयी श्रीजिनेश्वर भगवान की मूत्ति-प्रतिमा का सादर उत्तम भावों से प्राश्रय अवश्य स्वीकार करना चाहिए ।। ६ ।। [ १० ] - मूलश्लोकःकुमारणां हेतुं क्षमणशमनादौ सुखकरी सदा ध्येया गेयाऽऽगमनिगमसारैः सुवचनैः । सदाा वन्द्या च प्रथितविधिभिर्मङ्गलमयैः , सुमूत्तिः स्फूर्तिश्चाखिलसरसभावविमनुताम् ॥ १० ॥
SR No.002336
Book TitleJinmurti Pooja Sarddhashatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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