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होता है वैसे ही जनसमूह भी कभी सामान्य रोगों से, कभी महाधिव्याधि- सन्ताप आदि से, कभी कुयोग या विधिविडम्बना से, शोकादिक से प्रतिदिन श्रीजिनेश्वरदेव की शरण के आश्रय के बिना जन्म - मृत्यु - रोग-शोक के चलते हुए चक्रयन्त्र में पिसता रहता है ।। १३५ ।।
[ १३६ ]
→ मूलश्लोक:अविद्यायाश्वदं विधिविलसितं वा कलुषितं, मतिभ्रान्त्या गत्या जगति बहुल्या जिनवर ! भवत्पादारत्या कटतरविपत्या कृतमिदम्, गतातङ्क स्वयं पुनरपि विधत्तां जनमिमम् ।। १३६ ।।
संस्कृत भावार्थ :- हे जिनेश्वर भगवन् ! सांसारिकसुखं प्रति रतिभावात् बुद्धि-विभ्रमात् समुद्भूताज्ञानकलुषितविधिविडम्बनया । भवदीयचरणारविन्दयोरश्रद्धाभावः, कटुतरविपत्तेः एतत् सर्वमवाञ्छितपरितापं प्राप्नोति । हे करुणार्द्रविमलकोडे पुनरपि जनमिमं स्थापयतु
।। १३६ ।।
* हिन्दी अनुवाद - हे जिनेश्वर भगवन् ! सांसारिक सुखों के प्रति अत्यधिक प्रासक्ति भाव से, बुद्धिविभ्रम से समुद्भूत अज्ञान कलुषित विधिविडम्बना से, श्रापके
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