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चरणारविन्दों में अश्रद्धाभाव से तथा कटुतर विपत्ति से यह सभी अवाञ्छित परिताप प्राप्त होता है। अातंकरहित अपनी विमल गोद में फिर से इस जन को स्थापित कीजिये ।। १३६ ॥
[ १३७ ] - मूलश्लोक :यथार्को ध्वान्तानां हरति सकलं गाढतमसां , कृपोटश्शुष्काणां दहति लघुराशि विटपिनाम् । प्रचण्डो वै वातो विघटयति गावां घनघटां , तथार्हन्ती मूत्तिहरति परितापं तनुभृताम् ॥ १३७ ॥
+ संस्कृतभावार्थ:-येन प्रकारेण गहनान्धकारमर्कः (सूर्यः) विदारयति । शुष्कवृक्षसमूहं पावको दहति । प्रबल: प्रचण्डो वायुः गहनमपि मेघमालां विघटयति, छिन्नभिन्नां करोति । तथैव श्रीमहन्मूत्तिः देहधारिणां सकलमपि परितापं झटिति दूरीकरोति ।। १३७ ।।
* हिन्दी अनुवाद-जिस प्रकार से सघन अन्धकार को सहस्र किरणधारी सूर्य दूर कर देता है, शुष्क वृक्षसमूह को अग्नि सहसा ही जला देती है, प्रचण्ड वायु का वेग सघन घनघटा को छिन्न-भिन्न कर देता है; उसी
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