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________________ + संस्कृतभावार्थ:-हे देवेश ! अस्मिन् संसारे कञ्चन-कामिनीषु रक्ताः मूर्खाः जनाः धनार्थं जलयानेन जलधि गाहन्ते-विलोडयन्ति । भोगविलासविषयान् अपि मार्गन्ते । तेऽस्मिन् विषयजाले संरक्ता विषयाणां वित्तानां असारतां न चिन्तयन्ति । अहं मन्ये यत् एतद् अर्हन्मूत्तिपूजाया: अर्हतः पूजायाः विरक्त: परिणाम एव । * हिन्दी अनुवाद- हे देवेश ! इस संसार में कनककामिनी में मग्न-लीन मन्दमति,भ्रान्तमति लोग वैषयिक सुखों तथा धनादि के लिए सदैव जलपोत (पानी का जहाज) से समुद्रों का विलोड़न सा करते रहते हैं। उनका ध्यान कभी संसार की असारता तथा विषयभोगों की क्षणिकता विनश्वरता की तरफ नहीं जाता है। मैं इसे भी अरिहन्त भगवान की उपासना के प्रति स्वकृत विरक्ति का ही कारण मानता हूँ ।। १२७ ।। [ १२८ ] । मूलश्लोकःधरित्री सर्वेयं मणिगणधरित्री मुदकरी , धनं रूप्यं कूप्यं सुरक्षितिधरः काञ्चनमयः । प्रदीयन्ते यस्मै गज-रथ-हया-धूमगतयः , न वा तुष्यत् क्वाहो कथमपि महालोभजलधिः ॥ १२८ ॥ -०-१५७-०
SR No.002336
Book TitleJinmurti Pooja Sarddhashatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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