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________________ मे शत्रवः अन्तस्थिताः सन्तः मदीयां शान्ति सुखमपनयन्तः सततं विराजन्ते पीडयन्ति च सर्वथा । अहं मन्ये यदेतत् तव चरणविमुखतायाः एव परिणामोऽयम् । येन चतुभिरन्तः स्थितैः शत्रुभिर्हन्यते । अन्यथा समुदिते सूर्ये यथारात्रिर्न प्रभवति तथैव मयि तव चरणसेवापरायणे सति एते रिपवः कदापि प्रत्यक्षं शरीरे वा स्थातु ं न शक्नुवन्ति ।। १२५ ।। * हिन्दी अनुवाद - हे अर्हन् ! क्रोध-मान- माया-लोभ नामक चारों कषायरूपी प्रभ्यन्तरिक शत्रु सदैव मेरा सुख-चैन छीन रहे हैं, मुझे पीड़ा एवं सन्ताप पहुँचा रहे हैं तथा वे मेरे शरीर में ही निवास कर रहे हैं । हे प्रभो ! मैं तो यह मानता हूँ कि आपके चरणों की सेवा-भक्ति से विमुख रहने का यह प्रतिफल है । अन्यथा सहस्रदीधिति सूर्य के उदित हो जाने पर अन्धकारमयी रजनी कैसे टिक सकती है ? ।। १२५ ।। [ १२६ ] D मूलश्लोक: 1 सुखाहः सन्तापो विषमपरिपाकोऽप्रतिरथः भवभ्रान्ते यन्त्रे तिलमिव सदा पीलयति माम् । श्रहं शङ्क चार्हन् ! तव पदविरागादिदमभूत्, गदाघाते पादे स्मृतिपथगते पीडयति कः ॥ १२६ ॥ -०- १५५-०
SR No.002336
Book TitleJinmurti Pooja Sarddhashatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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