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भ्रामयति । सत्यमेतद् यद् विषापहारी मन्त्रो यस्य पार्वेप्रात्मनि वा रमते तस्य गरलं कां हानि तनोति ? कथमपि केनापि प्रकारेण प्रभवितु न शक्नोति ।। १२४ ।।
* हिन्दी अनुवाद-हे वीतराग अरिहन्त परमात्मा !. मैं यह स्वीकार करता हूँ कि-आपकी चरण-सेवा मैंने सम्यक् प्रकार से नहीं की। अतएव सुखरहित असार संसार में मेरे कर्मजाल मुझे बारबार भ्रमित करते रहते हैं। यह सत्य है कि विषहारी मन्त्र के रहते भला विषजहर उस व्यक्ति का क्या बिगाड़ सकता है ? अर्थात् वह विष-जहर किसी प्रकार से भी विषापहारी मन्त्रधारक को प्रभावित करने में समर्थ नहीं हो सकता है ॥ १२४ ।।
[ १२५ ] - मूलश्लोकःइमे चत्वारो मे प्रवररिपवोऽवारितरयाः , वसन्तश्चान्त, शमसुखहरन्तोऽपि सततम् । अहं मन्ये चाहत् पदविमुखतायाः फलमिदं , समुद्भूते भानौ प्रभवति तमिस्रा कथमहो ! ॥ १२५ ॥
संस्कृतभावार्थ:-हे अर्हन् ! क्रोध-मान-माया-लोभनामधारिणः शरीरस्था: प्रवारितवेगाः एते चत्वारोऽपि
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