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संसारे सर्वेजानन्त्येवयद् गङ्गाजलं विषाक्तकीटरहितं परमपवित्रजनानां मुखमपि गतं जनान् पावयति ।। १२३ ।।।
* हिन्दी अनुवाद-संसार में तृष्णा भावों से बद्ध, धर्म-कर्मचरित्रों से पतित मनुष्य भी सद्ज्ञानोदय से यदि सुखदायिनी वीतराग श्रीजिनेश्वर भगवान् की मूत्ति-प्रतिमा का आश्रय लेता है, उसकी पूजा करता है तो वह शीघ्र ही समस्त पापों-कलुषों से मुक्त होकर दूसरे लोगों को भी पवित्र करने में मग्न-लीन हो जाता है। सभी जानते हैं कि गङ्गा का जलबिन्दु भी लोगों के मुख में पड़ते ही उन्हें पवित्र करता है, उनकी भावनात्मक शुद्धि करता है ।। १२३ ।।
' [ १२४ ] मूलश्लोकःअहं मन्ये सम्यक् तव चरणसेवां न कृतवान् , ततो मां संसारे विगतसुखसारे भ्रमयति । विषाहारो मन्त्री वसति यदि यस्यान्तरगृहे ,
वदैतत्त्वं देव ! गहनगरलं कि प्रभवति ? ॥ १२४ ॥ .. + संस्कृतभावार्थः-हे अरिहन्तदेव ! अहं स्वीकरोमि यत् श्रीमदचरणारविन्दसेवां सम्यक्प्रकारेण नाकारवम् । प्रतएव सुखरहितेऽसारेऽस्मिन् संसारे निजकर्मजालं मां