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________________ [ १२१ ] 0 मूलश्लोकःकदाचिद्रकोऽसौ कथमपि नराधीशमनघं , समेतस्तत्सेवामपि सविदधानो धनधिया । स कि भूपोऽनूपोऽमितकरुणया पीडितमनाः , समायातस्येहामिह भुवि भवां पूरयति नो ॥ १२१ ॥ + संस्कृतभावार्थः-अत्यधिको दरिद्रोऽपि कस्यचिद् नपस्य सेवायां धनाभिलाषयासंलग्नः सन् अनूपस्य तस्य भूपस्य कृपाकटाक्षनिपातेन तस्य दरिद्रता दूरीभवति । संसारेऽस्मिन् यदपि तस्याभीप्सितं स्यात् तत् सर्वं सपदि पूरयति । अर्थात्-परमकारुणिकोनृपः तस्य द्ररिद्रस्य सर्वां लौकिकी आवश्यकता झटिति पूरयति प्रसन्नःसन् तेनसंसारेऽसावपि सम्पन्नो धनाढ्यः प्रशस्यश्च भवति ॥ १२१ ।। * हिन्दी अनुवाद-किसी राजा की सेवा में धनार्थ तल्लीन रहते हुए भी अनूप भूप के प्रतिकारुण्य कृपाकटाक्षसम्पात से किसी दरिद्र की दरिद्रता दूर हो जाती है, इस संसार में उसकी अभिलाषा सद्यः पूर्ण हो जाती है। अर्थात्-परम कारुणिक नृपति-राजा उस दरिद्र-गरीब की लौकिक आवश्यकता को शीघ्र पूर्ण करता है। अतएव --- १५० ---
SR No.002336
Book TitleJinmurti Pooja Sarddhashatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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