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________________ विमुच्यन्ते, तथा अक्षयमव्ययञ्च पदं लभन्ते । नात्र मनागपि सन्देहस्य गन्धलवोऽपि वर्तते । * हिन्दी अनुवाद-हर प्रकार से दीन-हीन मनुष्य भी यदि सम्राट् चक्रवर्ती की सेवा में मग्न-लीन रहता है तो व्यवहारसिद्ध है कि प्रसन्न राजा के प्रताप से वह एक दिन राजा की भाँति सम्पन्न-सा हो जाता है। उसकी दरिद्रता काफूर हो जाती है। ठीक इसी प्रकार से विश्वविदित-प्रतापमयी श्रीअर्हन्त-जिनेश्वर भगवान की मूत्ति-प्रतिमा की पूजा में मग्न-लीन सभी मनुष्य आधिदैविक, आधिदैहिक, आधिभौतिक दुःखों से सर्वथा मुक्त होकर परमपद-मोक्ष को प्राप्त करते हैं। इस विषय में अंश-लेश मात्र भी सन्देह को स्थान नहीं है ॥ ११६ ।। [ १२० ] 0 मूलश्लोकःविमुच्यान्यत् कृत्यं प्रतिपदमशान्तिप्रदमलं , शमं सौख्यं वाञ्छन्नमितविषयादुःखितमनाः । भजनहन मूति शिवसुखमयों मुक्तिजननी , निराबाधं सारं शमशिवसुखं को न लभते ? ॥ १२० ।। -०-१४८ --
SR No.002336
Book TitleJinmurti Pooja Sarddhashatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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