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________________ * हिन्दी अनुवाद-मानसरोवर के प्रति सतत लालायित क्षीरनीर विवेकी हंसों की भाँति विद्वन्मण्डल भी सहसदीधिति सूर्य के समुदित, प्रोद्भासित होने पर जैसे अन्धकार की गहन चादर छिन्न-भिन्न हो जाती है, वैसे ही एकनिष्ठ परम श्रद्धा, भक्ति एवं विश्वास से श्रीअरिहन्तजिनेश्वर भगवान की मूत्ति प्रतिमा की सेवा, पूजा तथा ध्यान करते हुए अनन्त सुख-शाश्वत सुख को प्राप्त करते हैं ।। ११८ ।। [ ११६ ] D मूलश्लोकःसदारङ्कः कङ्को नृपमनुगतस्सेवितपदः , भवेद् भूपाकारो धनवसनधान्यः परिकरैः । समाराध्यां चैनां विदितभुवनाभोगविषयाः , सदा स्वात्मा रामा व्यपगतभया यान्ति मनुजाः ॥ ११६ ॥ के संस्कृतभावार्थ:-सर्वतोभावेन दीनोऽपि मनुजो यदि नपस्य सेवायां सततं लीनो भवति तदा स निस्वप्रचत्वेन धनैः धान्यः वसनभूषणादिभिः नृपसन्निभं भूयात् । स्वयमेव लोकविश्रुतां भगवतो मूत्ति समाराध्य सर्वेऽपि मनुजाः दैहिक-दैविक-भौतिक सन्तापेभ्यः सर्वथा -०-१४७-०
SR No.002336
Book TitleJinmurti Pooja Sarddhashatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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