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[ १०३ ]
D मूलश्लोक:
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मृदिस्ना यत् पादौ कमलमृदुतां तावजयताम् करौ शुण्डादण्डौ पुरवर कपाटोपममुरः ।
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कपालश्चन्द्रार्द्धं
वपुरखिलशोभातिवसनं,
समेषां चानन्दं जनयति यथा पार्वरण विधुः ॥ १०३ ॥
संस्कृत भावार्थ:- तस्य कोमलौ चरणौ कमलस्य कोमलताम् । हस्तौ गजशुण्डौ, वक्षस्थलं प्रधाननगरकपाटं, ललाटोऽर्द्धचन्द्रमसं सुन्दरं वपुः रतिपतिशोभां मुखश्च पूर्णिमाचन्द्रमसमजयन् । अर्थात् तस्य शरीरसुषमातीवमनोहारिणी, अनुपमा चासीत् ।
* हिन्दी अनुवाद- उस श्रीपाल की बाल्यकालीन शारीरिक सुन्दरता एवं सुकुमारता का वर्णन करते हुए कवि ने उक्त श्लोक में आलंकारिक शैली का प्रयोग किया है तथा प्रकट किया है कि उसके शरीरावयवों के सामने सारे उपमान भी निस्सार अथवा तुच्छ से प्रतीत होते थे । उस श्रीपाल के कोमल चरण कमल की कोमलता को, हाथ हाथियों के शुण्डादण्ड को, चौड़ा सोना नगर के प्रधान फाटक की विशालता को, मस्तक अर्द्ध चन्द्रमा को, शारीरिक सौन्दर्य रतिपति कामदेव को तथा
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