SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 147
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शब्द और अर्थ की भाँति सदा मिले हुए कहकर तथा श्री तुलसीदास ने 'गिरा अर्थ जल वीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न' कहकर उक्त शब्दार्थ की अभिन्नता को प्रमाणित किया है । इस सौरस्य को जानते हुए भक्तगरण अपने-अपने आराध्यदेव के नाम का स्मरण, जप करते हुए केवलज्ञानरूपी सुधा अमृत का पान करके सदासदा के लिए संसारभीति से मुक्ति पाकर अखण्ड मोक्ष सुख का आनन्द लेते हैं ।। ६८ ।। [ ६ ] O मूलश्लोक: जिनेन्द्राणां पूजामिह नु विदधाना नरवराः, द्रुतं दूरीकृत्वा कटुफलकरं कर्मनिचयम् । वरं यत् कैवल्यं त्रिभुवनविकाशं शिवमयं क्षणाल्लब्ध्वा मुक्ति ध्र ुवमुपगता यास्यति परः ॥ ६६ ॥ 155 संस्कृतभावार्थ:- यथा श्रीजिनेश्वर - नामस्मरणेन जपेन वा कैवल्यलाभस्तथैव विश्ववन्द्यानां श्रीमज्जिनेश्वरदेवानां प्रतिमापूजनमपि फलप्रदमिति रहस्यं विदन्तो भक्ताः श्री जिनप्रतिमार्चनं-पूजनं कुर्वाणः कटु-कर्कश - कर्म - कालुष्यं दूरीकृत्वा विमलया भक्त्या, जया च परमं प्रकाशं जगद् -- १२४ -
SR No.002336
Book TitleJinmurti Pooja Sarddhashatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy