SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ थी । जनसाधारण अत्यन्त श्रद्धा, प्रेम तथा उत्साह से इसकी शोभा बढ़ाते थे । हम अधिक क्या कहें ? उस समय गाँव-गाँव, ढाणी-ढाणी में श्री जिनेश्वर भगवान की पूजा का प्रभाव था तथा चैत्य-मन्दिर थे । ऐसे स्थल दुर्लभ थे जहाँ जिनमन्दिर न हो ? सब मन्दिरों में प्रभुपूजा, आरती आदि तथा घण्टानाद होता था । अहिंसा - दयाप्रधान धर्म श्री जैनधर्म का एकछत्र राज्य था ।। ६३ । [ ६४ ] [] मूलश्लोक: इदं कि नो सत्यं किमुत निगमेनाङ्कितमिदं, विदग्धानां बाढं विगलितविकल्पं मतमिदम् । प्रमाणैः सिद्धेदं त्रिभुवनगुरोबिम्बयजनं, मुधा द्रुह्यन्तिस्म प्रगलितविवेका जडधियः ॥ ६४ ॥ 5 संस्कृतभावार्थ:- मूर्ति पूजा किं विदुषां कपोलकल्पितं वाग्जालमेव ? किमेतस्मिन् विषये प्रागमेषु शास्त्रेषु च स्पष्टरूपेण किमपि नैव लिखितम् ? अथवा असत्यमेतन्मोहविजृम्भितम् । अहन्तु स्वीकरोमि यत् प्रमाणैः सिद्धम्, तत् सर्वथा श्रादरास्पदम् । कथमपि केनापि विदुषा तस्य विरोधो न कर्त्तव्यम् । त्रिकाल - --- ११७ ---
SR No.002336
Book TitleJinmurti Pooja Sarddhashatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy