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प्रभु-प्रतिमाओं से पृथ्वी को समुल्लसित एवं प्रोद्भासित किया ।। ६१ ॥
[ २ ] । मूलश्लोकःजिनानां सच्चैत्यैः सुभगतरबिम्बैनवनवैः , मुनीनां सद्वासैनिगमसुलभैश्चोपकरणैः । सदा दीनोद्धारैर्दलितदुरितराद्रितबुधैः , अलचके भूमि निगदितवरैर्भूषणमयैः ॥ १२ ॥
+ संस्कृतभावार्थः-प्रातःस्मरणीयानां त्रिकालवन्दनीयानां श्रीजिनेश्वराणां मन्दिरैः, उपाश्रयैः, साधूपचितोपकरणैः दीनोद्धारैर्दलितजनसहायताभिः सम्प्रतिनृपः तथा वसुन्धरामलञ्चकार यथा रणद्भिर्नू पुरैश्चरणशोभा भवति ।
* हिन्दी अनुवाद-प्रातःस्मरणीय त्रिकालवन्दनीय त्रिकालदर्शी सच्चिदानन्द स्वरूपी भगवान श्रीजिनेश्वरदेव के नव्य भव्य मन्दिरों, साधूपयोगी धर्मक्रिया भवनों अर्थात् उपाश्रयों, साधूपयोगी साधनों तथा दीन-हीन-दलितजनों की सहायता आदि श्रेयस्कर कार्य-कलापों से इस परम पावन भारत-वसुन्धरा को सम्प्रति नामक भूपति-राजा ने ठीक उसी प्रकार अलंकृत कर दिया, जिस प्रकार मधुर
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