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+ संस्कृतभावार्थः-पुरा कश्चित् सम्प्रति नामक: श्रीजिनचरणकमल-निबद्धादरो महाराजो बभूव । तस्य यशांसि, तेजांसि, दयालुता, न्यायनिष्ठा च विश्वविदिता प्रासीत् । तस्य चेतसि करुणा वरुणालयारिङ्गत्तरङ्गादभङ्गा गङ्गा, दरिद्रनारायणं प्रक्षालयन्तीव विरराज । विनतं शिरोमण्डलं मुनिवरचरणारविन्देषु, जिनं प्रति प्रखण्डावच्छिन्ना सतत शुद्धाः श्रद्धाश्च सततं रेजतुः । विद्या वधूपजोवनाः, विद्याचणाः वाक्चणा: विचक्षणाः अपि तस्य सम्मानं चक्रुः । स च जिनालयः प्रतिमाभिश्च वसुन्धरां सुशोभयामास ।
..... हिन्दी अनुवाद-प्राचीनकाल में एक सम्प्रति नामक राजा हुए थे, जिनका विशुद्ध हृदय त्रिकालदर्शी श्रीजिनेश्वरदेव के चरण-कमलों के प्रति पूर्ण निष्ठा एवं भक्ति से समर्पित था। उनका यश एवं तेज विश्वविख्यात था। उनके हृदय में दयालुता की तरंगायित अभंग गंगधार प्रवहमान थी, जिससे वे दरिद्र-दीनदुःखियों के दुःख प्रक्षालित करते थे। उनका मस्तक मुनिचरणारविन्दों में सदैव विनत रहता तथा श्रीजिनेश्वरपूजा के प्रति उनकी शुद्ध श्रद्धा थी। विद्वान् भी उनका आदर-बहुमान करते थे। उन्होंने अनेक जिनालयों एवं
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