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________________ * हिन्दी अनुवाद-यह मूर्तिपूजा - पद्धति का मार्ग प्रामाणिक रूप से दिव्यज्ञानदर्शी त्रिलोकीनाथ श्रीपादीश्वरऋषभदेव भगवान ने सुकुमारमति, कोमलहृदय मानवों के लिए प्रकट एवं प्रशस्त किया है। आप स्वयं विचार कीजिए कि सुगम एवं सुलभ उपाय से ही यदि क्रमशः स्वर्ग एवं मोक्ष की प्राप्ति हो तो संसार का कौन-सा बुद्धिमान् इस सरल, सरस मार्ग को छोड़कर अन्यत्र श्रमपरिश्रम करेगा? यदि मिश्री-शक्कर के समान मीठी औषधि से रोग-शान्ति सहज ही सम्भव हो तो भला कौन कटु-कड़वी दवा-औषध का सेवन करेगा ? ।। ८७ ।। [ ८८ ] [] मूलश्लोकःयजन् कश्चिद् विप्रो निगमविधिना स्वं सुर-वरं , जुहावाग्नौ हव्यं घृतसुरभितै - द्रव्यमतुलैः । नियन्ते ज्वालाभिर्मुदुतनुभृतो जन्तु निवहाः , उपेत्योचे विप्रं मुनिवरमरालो मृदुगिरा ॥ ८८ ॥ + संस्कृतभावार्थः-एकदा कश्चित् विप्रः स्वशास्त्रीयविधिना, निजमभीष्टं देवं लक्ष्यीकृत्य घृतसुरभिः हवनीयद्रव्यैः सन्दीप्तपावके हवनं कुर्वन्नासीत् । तदा कोऽपि परमदयालु, निरवलोकयत् अनन्ताः जीवाः --- ११० ---
SR No.002336
Book TitleJinmurti Pooja Sarddhashatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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