________________
श्रीजिनमूत्ति पूजा का मार्ग निर्देशित किया है। आज भी धर्मश्रद्धालु जनता उसी मार्ग के अनुसरण में ही प्रगतिशील है। कण्टकाकीर्ण मार्ग को तो अल्प विवेकी व्यक्ति भी सरल तथा निष्कण्टक मार्ग की प्राप्ति होने पर छोड़ देता है। इस संसार में भला ऐसा कौन होगा कि जो सरल, निष्कण्टक संक्षिप्त मार्ग के रहते हुए लम्बे तथा बाधाओं: से घिरे हुए भयावह मार्ग में कदम बढ़ायेगा ? कोई भी नहीं, यह तात्पर्य हैं ।। ८६ ॥
. [ ८७ ]
. . - मूलश्लोकःअयं सौम्यो मार्गो भुवनपतिना दिव्यगतिना , जिनेनैवादिष्टो मृदुलमतये मानवकृते ।। समाराध्यैवा, मिलति यदि दिव्यां सुरगति , क्रमात् प्रान्ते मुक्ति वद परिहरेत् को बुधवरः ॥ ८७ ॥
७. संस्कृतभावार्थः-अयं पूजापद्धतिनाममार्गोऽपि प्रामाणिक रूपेण त्रिलोकनाथेन दिव्यज्ञानिना सुकुमारमतीनां मानवानां कृते वर्णितः प्रशस्तीकृतश्च । विचारयन्तु यत् यदि सुगमेनोपायेन क्रमात् स्वर्ग-मोक्षादिकं प्राप्येत, तहि को बुद्धिमान् एनं सन्मार्ग परित्यजेत् ? यदि मधुरौषधिसेवनेन रोगः शाम्येत तहि कः कट्वौषधि सेवेत ? । '
-~-१०६ ---