SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 131
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भावविशुद्धि के सद्भाव से ही मुक्तिरूपी लक्ष्मी का वरण करते हैं ।। ८५ ॥ D मूलश्लोकः [5६ ] क्षितौ कल्याणार्थं विपुलमतिभिर्दशितपथाः , प्रवर्तन्ते लोका विषमरहितेनैव सुपथा । विना विघ्नं शश्वद् वहति यदि राज्ञाकृतपथः, पथे को गच्छेद भो! विपुलकटुकष्टेन जटिलम् ॥ ८६ ॥ ..संस्कृतभावार्थः-लोककल्याणकारिभिः स्वनाम.धन्यविद्वन्मूर्धन्यैः परमसत्यान्वेषिभिः श्रुतकेलिभिः गणधरभगवद्भिः सरलं राजमार्ग इव निष्कण्टकः श्रीजिनपूजामार्गो निर्देशितः, तेनैव मार्गेण जनता सम्प्रति गतिमातनोति । जनता कण्टकसंकुल पन्थानं सहसैव परित्यजति । को नाम सति सरले संक्षिप्ते भयरहिते मार्ग, कठिनेऽतिविस्तृते भयाकुले चरणौ निक्षिपेत् ? न 'कोऽपीत्याशयः । * हिन्दी अनुवाद-परमलोकोपकारी . : स्वनामधन्य विद्वन्मूर्धन्य परम सत्यान्वेषी श्रुतकेवली श्रीगणधर भगवन्तों ने जो राजमार्ग की भाँति सरल : तथा निष्कण्टक ----१०८-०
SR No.002336
Book TitleJinmurti Pooja Sarddhashatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy