________________
भवेच्चेत् । परमात्मनि निरते, विरते संसारात् ध्रुवं परमपदलाभः ।। ८३ ॥
* हिन्दी अनुवाद-जिस प्रकार विद्युत् यन्त्र के माध्यम से क्षणमात्र में ही दिदिगन्त आलोकित हो उठता है, ठीक उसी प्रकार मन के चाञ्चल्य-निरोध, मानसिक-संयमन हो जाने पर सहसा क्षणमात्र में अज्ञानरूपी अन्धकार न जाने किस निलय में विलय हो जाता है, प्रात्मप्रकाश फैलता है, समुल्लसित होता है। ऐसी आत्मप्रकाश से प्रकाशित स्थिति को प्राप्त करने के लिए परमावश्यक यह है कि पीपल के पत्ते की तरह चञ्चल मन को परमपिता-परमेश्वर के चरणारविन्दों में एकनिष्ठ भाव से समर्पित करें। परमात्मा में मग्न-लीन तथा संसार से विरक्त होने पर अवश्य ही परमपद-मोक्ष का लाभ मिलता है ।। ८३ ॥
[ ८४ ] । मूलश्लोकः
जनः सोपानस्य प्रथमवलये न्यस्य चरणं, द्विभूमं प्रासादं परिसरति दुःखं परिहरन् । समुत्कण्ठो द्रष्टुं शशधरमखण्डं निशिवरं, निराधारं कश्चित् कथय किमु रोढुंप्रभवति ?॥८४॥
-- १०५-०