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अनेक प्रकार के कष्टों, पापों से कलुषित संसार - भ्रमण के मूल कारण मोह तथा अज्ञान-समूह को सर्वथा समूल विनष्ट करती है। सम्यक्त्व प्रदान करके प्रान्तरिक ताप-सन्ताप को भी दूर करती है तथा नूतन परम सुखद परम्परा का चयन करती है, क्रमशः स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करती है। अतः निःसन्देह श्रीजिनमूत्ति-पूजा सर्वोत्कृष्ट एवं सर्वहितकारिणी है ।। ८१ ।।
[ ८२ ] * मूलश्लोकःविना पोतं नावं जलधिपरकूलं व्रजति कः , ऋते वै वैराग्यात् कथय किमु स्यात् संयमधनम् । इदं शीघ्र चित्तं भगवति न यावद्धि रमते , कथं कि कस्याहो वद-वद सखे ! स्यात् शमसुखम् ॥ ८२ ॥
+ संस्कृतभावार्थः-यदि जलपोतः समुद्रगामिनी नौका वा न भवेत् तदा कश्चिदपि तटान्तरं द्वीपान्तरं वा कथं गन्तु शक्नोति ? तथैव यावत् संसारात् विरक्तिर्न भवेत् तावत् महाव्रतत्वं, को नाम धारयति ? एतच्चपलचित्तं यदि श्रीवीतराग-परमात्मनि न रमते, वद मित्र ! केन प्रकारेण मोक्षमधिगन्तु शक्यते ? ।। ६२ ।।
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