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कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि-यदि तुम्हारी धारणा ऐसी ही है तो तुम सुधा-अमृतपान से मृत्यु होती है, ऐसी विपरीत स्थिति को स्वीकार क्यों नहीं करते ? ऐसा सुनकर मौनावलम्बी क्यों बन जाते हो ? ॥ ८० ।।
[८१ ] - मूलश्लोकःइयं त्वर्चा वर्या दलयति विमोहं भवकर , विधत्ते सम्यक्त्वं कुटिलपरितापं शमयति । चिनोतीहात्यन्तां नवनवसुखश्रेणीमनघां, ध्रुवं सिद्धि यच्छत्यमरपदलाभस्तु सहसा ॥ ८१ ॥
संस्कृतभावार्थः-एषा श्रीजिनेन्द्रमूत्तिपूजा सर्वतोभावेन सर्वोत्तमतामावहति-नानाकष्टकलुषित - भवभ्रमणहेतु मोहनिकरमपनयति । सम्यक्त्वं प्रदाय अन्तस्तापं सन्तापं विगलयति, अभिनवसुखपरम्परां चिनोति । क्रमशः स्वर्गापवर्ग च प्रददाति । अत: निश्चप्रचमिदं यज्जिनमूत्तिपूजा सर्वोत्कृष्टा सर्वहितङ्करी ।। ८१ ।।
* हिन्दी अनुवाद-सर्वज्ञ विभु श्री जिनेश्वर भगवन्तभाषित श्री जैनागम-शास्त्रोक्त श्रीजिनमूत्ति-पूजा निश्चित रूप से सर्वोत्कृष्टता द्वारा सुसम्पन्न है। यह मूत्ति-पूजा,
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