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5 संस्कृतभावार्थः-'श्रमणानां साधूनां बहुमान सेवाभक्तिस्तु अनन्तसुखाय कल्पते' इति सर्वे सहमतिपूर्वक मामनन्ति । एवं चेत् परमकल्याणकारिणी प्रभोरर्चनापूजा कथन्न समाद्रियते ? विशिष्टरीत्या महता महोत्सवेन परमश्रद्धया निष्ठया चानुष्टिता प्रभोरर्चना-पूजा निश्चयेत्वेन अखण्डशान्तिप्रदा श्रीजैनधर्मस्य - जैनशासनस्य प्रचारयित्री, अतएव कैरपि अन्तरायो न कर्त्तव्यः ।। ७६ ।।
* हिन्दी अनुवाद-श्रमण-साधु सन्त महापुरुषों की सेवा-भक्ति अनन्त सुखदा होती है। यह निर्विवाद सत्य है। यदि ऐसी मान्यता सर्वसम्मत है तो परमात्माप्रभु की अर्चना का समादर पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास के साथ स्वीकार करने में क्या आपत्ति है ? श्रमण-साधुसन्त, महापुरुष भी तो प्रभु के सेवक-भक्त हैं, इतना ही नहीं किन्तु प्रभु-प्रदर्शित पथ के भी सच्चे अनुयायी हैं । मेरा तो सादर सविनय निवेदन है कि सभी प्रकार के दुराग्रहों को छोड़कर प्रभु की अर्चना-पूजा-उपासना निश्चित रूप से अखण्ड सुखशान्तिप्रद है। तथा धर्मप्रचार-प्रसार में सहायक है। अतएव किसी भी व्यक्ति को किसी प्रकार का कोई अन्तराय नहीं करना चाहिए ॥ ७६ ।।