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________________ चोत्तमं सार्धमपि अनुमन्तारः सहयोगकर्तारोऽपि फलमाप्नुवन्ति । येन केनापि प्रकारेण श्रीजैनधर्मप्रसार: प्रचारश्च स्यात् - इत्यपि ते मनीषयः स्वीकुर्वन्ति । तदा तु भव्यपुरुषैः श्रीजैनधर्मप्रचारार्थमवश्यमेव जिनमन्दिरं - जिनालयं जिनमूत्तिः- जिनप्रतिमा च निर्मायित्वेति रहस्यम् । * * हिन्दी अनुवाद - जो मूर्त्तिविरोधी मनीषी मूर्तिपूजा को स्वीकार नहीं करते, वे भी अपने प्रवचन - व्याख्यान में कहते हैं कि हे भाग्यशालियो ! तुम्हें धर्मप्रचार-प्रसार के सत्कार्य अवश्य करने चाहिए, जिससे उत्तम फल की प्राप्ति होती है । सुकार्यकर्त्ता के साथ ही अनुमोदन एवं सहयोगकर्त्ताओं को भी समानरूपेण उत्तम फल प्राप्त होता है। जैनधर्मप्रचार-प्रसार के लिए जिनमन्दिरजिनालय एवं जिनमूत्ति - जिनप्रतिमा अत्यन्त सहायक है तथा भवभय - विनाशिनी है । अतः इसकी स्थापना अनिवार्य है ।। ७७ ।। [ ७८ ] मूलश्लोक: निवासे साधूनां यदि युवति चित्रं विलिखितं, विकृत्यै तत् प्रोक्तं निवसति न कश्चिन्मुनिगणः । समाधौ लीनानां श्रमणसुभगानां यदि सखे ! ध्रुवं शान्तिं लोकाद् विरतिकृतये स्यान्मतमिदम् ॥ ७८ ॥ , →- 23 -
SR No.002336
Book TitleJinmurti Pooja Sarddhashatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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