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________________ * हिन्दी अनुवाद-"तुम विधि-पूर्वक प्रसन्नचित्त होकर श्री जिनेश्वरदेव की मूत्ति-प्रतिमा की पूजा करो। अवश्य ही परमपद-मोक्ष तुम्हें सुलभ होगा।" ऐसा कह कर श्री आदीश्वर भगवान प्रस्थान कर गये। सम्राट श्री भरत चक्रवर्ती ने भी प्रभु की वाणी का अक्षरशः अनुसरण किया। ऐसा श्री जैन शास्त्रों में स्पष्टतया उल्लिखित है। तुम (मूर्तिविरोधी) भी जैन-जैनेतर शास्त्रों का सम्यक्प्रकारेण अनुशीलन, अवगाहन करके अपने सन्देह को दूर करो तथा मूर्तिपूजा के प्रति पूर्णतया श्रद्धावान् बनो ।। ६६ ।। [ ६७ ] 0 मूलश्लोक:विना चैत्यं मूतिर्नयनपथमायाति न भुवि, प्रतिष्ठाप्या तस्मिन् जिनवरपतेश्चाप्यनुकृतिः। विना दीपं गेहं सुभगमपि नक्तं न सुखदं, प्रतिष्ठाप्या कार्याविरपि जिनेन्द्रस्य शिवदा ॥ ६७ ॥ + संस्कृतभावार्थ :-मन्दिरमन्तरा संसारे दर्शनाय मूतिर्न प्राप्यते । अत एव पूर्व मन्दिर निर्मापय, ततश्च प्रभोः प्रतिमायाः रचना, शास्त्रानुसारेण विधिवत् प्रतिष्ठा च कार्या। श्रीजिनेन्द्रदेवस्य प्रतिमायाः शोभा अङ्गरचना च सुन्दररीत्या भक्ति-भावेन कर्त्तव्या। जिनप्रतिमा
SR No.002336
Book TitleJinmurti Pooja Sarddhashatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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