________________
स्याद्वादबोधिनी-२०१
जिस प्रकार मन्त्रवादी विष-खण्ड को अनेक प्रकार से शुद्ध करके, विषरहित कर के कोढ़ आदि के रोगी को प्रदान करके रोग-निमुक्त कर देता है। श्रीअध्यात्मसार ग्रन्थ में भी उन्होंने कहा है कि
'जिस प्रकार पिता अपने समस्त पुत्रों को समान भाव से रखता है, उसी प्रकार अनेकान्तवाद-स्याद्वाद भी समस्त नयों को समभाव से देखता है । अतः जो स्याद्वाद का अवलम्बन लेकर सभी दर्शनों की तुल्यता समानता को देखता है, वही शास्त्रज्ञ है, वही सम्यग् द्रष्टा है ।' स्याद्वाद-दर्शन श्रेयस्कर है। इसमें कहीं भी दोष या विरोध की सम्भावना नहीं है ।। ३० ।।
(३१ ) पूर्वोक्तप्रकारेण कतिपयपदार्थविवेचनं - विधाय स्वकीयमसामर्थ्य विनीतभावेन प्रदर्शयन् यथार्थवादिनोऽर्हतः स्तुति कुर्वन्नाहॐ मूलश्लोकःवाग्वैभवं ते निखिलं विवेक्त,
प्राशास्महे चेद महनीयमुख्य । लङ्घम जङ्घालतया, समुद्रं,
वहेम चन्द्रा तिपानतृष्णाम् ॥ ३१ ॥