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स्याद्वादबोधिनी - २००
दार्शनिक मात्सर्यभाव से ग्रसित रहते हैं । ईर्ष्यालुजन किसी अन्य के उत्कर्ष को सहन करने में असमर्थ होते हैं । किन्तु हे देवाधिदेव वीतराग - विभो ! आपका निखिल नयानुसारी अनेकान्तवाद - स्याद्वाद सिद्धान्त किसी भी प्रकार के पक्षपात भाव से लिप्त न होने के कारण, श्रौर समन्वय संस्थापित करने के कारण सर्वथा मात्सर्य भावरहित एवं सर्वमान्य है और श्रेयस्कर भी है ।
न्यायविशारद - न्यायाचार्य वाचकप्रवर श्री यशोविजय जी महाराज ने भी 'नयप्रदीप' ग्रन्थ में आपके स्याद्वादसिद्धान्त को सर्वनयानुसारी समन्वय सूत्र बताते हुए कहा है - पारस्परिक विरोध रखने वाले नय भी एकत्र दशा में सम्यक्त्व स्थिति से अनुप्राणित हो जाते हैं । अर्थात् जिस समय परस्पर निरपेक्ष वचनों के अनुसार 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया जाता है तो वे नय सम्यक्त्व रूप हो जाते हैं । जिस प्रकार धन, धान्य, भूमि आदि के लिए परस्पर विवाद करने वाले लोग किसी निष्पक्ष व्यक्ति के द्वारा समझाने पर विवाद छोड़कर मेल-मिलाप से रहते हैं; उसी प्रकार परस्पर विरोधी नयों को भी समर्थ विद्वान् जैन साधु श्रीजैन सिद्धान्त स्याद्वाद द्वारा दूर करके समन्वित कर देता है ।