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________________ स्याद्वादबोधिनी-१६६ अतः सम्पूर्ण नय स्वरूप को अनेकान्तवाद (स्याद्वाद) के रूप में स्वीकार करके समन्वय सूत्र के रूप में मात्सर्यभाव से रहित श्री अरिहन्तदेव द्वारा प्ररूपित सिद्धान्त ही श्रेयस्कर है। इस बात को प्रगट करते हुए कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य महाराज कहते हैं * श्लोकार्थ-अन्य दार्शनिक परस्पर पक्ष और प्रतिपक्ष भाव के कारण एक-दूसरे से ईर्ष्याभाव रखते हैं, किन्तु सर्वज्ञविभु हे जिनेश्वरदेव ! समस्त नयों को एक समान रूप से स्याद्वादात्मक अनेकान्त रूप से प्रस्तुत करने वाले आपके सिद्धान्त में किसी प्रकार के पक्षपात का भाव नहीं है। अतः वह समन्वय सूत्र है, परम श्रेयस्कर है । भावार्थ-अन्योऽयमिति । अभीष्ट अर्थ को प्रकृष्ट एवं प्रशस्त रूप में प्रतिपादित करने को प्रवाद कहते हैं। वद् धातु से घञ् प्रत्यय उपधा वृद्धि करने पर 'प्रकृष्टश्चासौ वादः' मध्यम पद लोपी समास करने पर 'प्रवादः' शब्द की निष्पत्ति होती है। उसका बहुवचनान्तरूप 'प्रवादाः' होता है। अन्य दार्शनिक पक्ष और प्रतिपक्ष का आश्रय लेते हैं। वे स्वकीय मत को युक्तिपूर्वक साधने का प्रयास करते हैं तथा अन्य के मत का ईर्ष्याभाव पूर्वक खण्डन करते हैं। ऐसी स्थिति में वे
SR No.002335
Book TitleSyadwad Bodhini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinottamvijay Gani
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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