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स्याद्वादबोधिनी - १८३
नामक महनीय ग्रन्थ में कहा गया है कि - 'सामान्य और विशेष को छोड़कर नय का कोई अन्य विषय नहीं हो सकता । अतः समस्त नैगम आदि नयों का सामान्य और विशेष नयों में ही अन्तर्भाव हो जाता है ।'
श्रीतत्त्वार्थश्लोकवात्तिक में भी द्रव्य तथा पर्याय के भेद से ही नयसार संक्षेप रूप से कहे गये हैं- 'संक्षेपाद् द्वौ विशेषेण द्रव्य - पर्यायगोचरौ ।' नयवाद के निरूपण में श्रीजैन ग्रन्थों के अवलोकन से दो परम्पराएँ स्पष्ट दिखाई देती हैं- तार्किक एवं सैद्धान्तिक । तार्किकों के अनुसार द्रव्यार्थिक नैगम आदि तीन तथा पर्यायार्थिक ऋजुसूत्र आदि चार नयभेद हैं । इस परम्परा के अनुयायी तार्किक श्री सिद्धसेन दिवाकर, माणिक्यनन्दी, वादिदेव - सूरि, प्रभाचन्द्र तथा महोपाध्याय यशोविजय जी महाराज आदि विश्वविश्रुत विद्वान् हैं ।
दूसरी सैद्धान्तिक परम्परा के अनुसार द्रव्यार्थिक नैगमादि चार तथा पर्यायार्थिक शब्दादि तीन नयभेद हैं । इस महनीय परम्परा में प्रमुखतः श्रीजिनभद्रगरण, विनयविजय जी तथा देवसेन आदि प्राचार्यों का उल्लेख किया जाता है | महोपाध्याय श्री यशोविजय जी महाराजश्री ने इन दोनों परम्परानों का विधिवत् उल्लेख करते हुए कहा भी है
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