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________________ स्याद्वादबोधिनी - १८२ जिससे समुद्र की असंख्यात दीर्घकालीन स्थिति होने के कारण 'अनवस्था दोष' उद्भावित होगा तथा व्यवहारविरुद्धता भी, दोष भी । समुद्र की एक बूँद को भी समुद्र नहीं कहा जा सकता । यदि समुद्र की एक बूँद को समुद्र कहा जाये तो शेष अंश को भी समुद्र नहीं कहा जा सकता ।" ठीक इसी प्रकार वस्तु-पदार्थ के एक अंश के ज्ञान को वस्तु नहीं कह सकते, अन्यथा वस्तु के अन्य अंशों को प्रवस्तु मानना पड़ेगा । अतः जिस प्रकार समुद्र की एक बूंद को समुद्र अथवा समुद्र नहीं कहा जा सकता है । तद्वत् वस्तु के एक अंश के ज्ञान को वस्तु नहीं कह सकते अन्यथा वस्तु के अन्य अंशों को प्रवस्तु मानना पड़ेगा । अतः जिस प्रकार समुद्र की एक बूंद को समुद्र अथवा असमुद्र नहीं कहा जा सकता, तद्वत् वस्तु के एक अंश के ज्ञान को प्रमाण या अप्रमाण नहीं कहा जा सकता । अतः नय और प्रमाण पृथक्-पृथक् हैं । असंख्यात हो सकते हैं । सामान्य - निश्चय के भेद से नय का एक ही स्वरूप कहा गया है । यह श्रीतत्त्वार्थश्लोकवात्र्तिक में स्पष्ट है । सामान्य तथा विशेष की अपेक्षा नय के द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये दो भेद हैं । श्रीसन्मतितर्क नय,
SR No.002335
Book TitleSyadwad Bodhini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinottamvijay Gani
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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