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________________ स्यादवादबोधिनी - १८१ - एकान्तवादी दार्शनिक पदार्थ के एक धर्म को सत्य मानकर अन्य धर्मों का निषेध करते हुए पदार्थ का प्रतिपादन करते हैं । अतः वे दुर्नयवादी कहे जाते हैं । उदाहरणार्थ — न्याय-वैशेषिक दार्शनिक नैगम नय का अनुसरण करते हैं। श्रद्वतवादी वेदान्ती तथा सांख्यदार्शनिक संग्रहनय को मानते हैं । चार्वाक, व्यवहारनयवादी है । बौद्ध ऋजुसूत्रनयवादी हैं तथा वैयाकरण शब्दनय का अनुगमन करते हैं । यहाँ शङ्का यह उदित होती है कि नय और प्रमाण पृथक्-पृथक् क्यों माने जाते हैं ? समाधान यह है कि-नय के माध्यम से पदार्थ का एकांशीज्ञान होता है, जब कि प्रमाण से सम्पूर्ण ज्ञान होता है । अतः नय को प्रमाणरूप स्वीकार न करके पृथक् माना जाता है । इस विषय को श्रीतत्त्वार्थश्लोकवात्तिक में बड़े ही रोचक रूप में स्पष्ट किया गया है । 'जिस तरह समुद्र की एक बूँद को सम्पूर्ण समुद्र नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि यदि समुद्र की एक बूँद को समुद्र कहा जाये तो शेष समुद्र के पानी को असमुद्र कहना पड़ ेगा अथवा समुद्र के पानी की अन्य बूँदों को भी समुद्र कहना पड़ ेगा ।
SR No.002335
Book TitleSyadwad Bodhini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinottamvijay Gani
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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