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स्याद्वादबोधिनी - १५०
सभी पदार्थ अपने-अपने स्वभाव में स्थित हैं । अस्तित्व धर्म को नहीं त्यागते हैं । सत्ता रूप से जो संग्रह करता है, उसे हैं ।। २ ।
वे
इन सभी पदार्थों का
'संग्रह - नय' कहते
सत्ता के समान दिखाई देनेवाली होने के कारण प्रत्येक वस्तु में विद्यमान उस सत्ता के लिए अवान्तर सत्ता वाले, पदार्थों के लिए प्राणियों को 'व्यवहार- नय' प्रवृत्त करता है ।। ३ ।।
स्थिति- ध्रौव्य का प्रभाव ( गौरणत्व) होने के कारण केवल विनश्वर पर्याय का सद्भाव होने के कारण अर्थक्रियाकारी होने से पर्याय का श्राश्रयी 'ऋजुसूत्र - नय' होता है ।। ४ ।।
परस्पर विरोधी लिङ्ग, संख्या श्रादि के भेद से भिन्नभिन्न धर्मों को मानने वाला 'शब्दनय' कहलाता है ।। ५ ।।
क्षणस्थायी (क्षणिक) वस्तु को भिन्न-भिन्न संज्ञानों के भेद से भिन्न जानना 'समभिरूढ़ - नय' कहलाता है ।। ६ ।।
वस्तु विशेषक्रिया करने के समय ही विशेष नाम से कही जा सकती है, वह सदा एक शब्द का वाच्य नहीं हो सकती, ऐसे नय को 'एवंभूत नय' कहते हैं ॥ ७ ॥