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स्याद्वादबोधिनी - १७०
परिणाम पापकर्म के निमित्त से उत्पादित किया जाता है । इन दोनों परिणामों की उत्पत्ति करना ही, इन दोनों परिगामों के रूप से परिणत होना ही कर्मबद्ध आत्मा की अर्थक्रिया है । यह पुण्य पाप से होने वाली अर्थक्रिया कूटस्थ नित्य आत्मा में नहीं हो सकती । पदार्थों को नित्य मानने से उनमें क्रमशः अथवा एक साथ अर्थ किया नहीं हो सकती, यह बात पहले ही स्पष्ट की जा चुकी है । अतः दानादिक से होने वाले शुभ कर्म रूप पुण्य तथा हिंसादिक से होने वाले अशुभ कर्मरूप पाप- दोनों ही एकान्त नित्यवादी के मत में नहीं घट सकते हैं ।
बन्ध-मोक्षौ । कर्मपुद्गलों के साथ श्रात्मा का सम्पृक्त होना बन्ध कहलाता है, तथा कर्मपुद्गलों का क्षय होना 'मोक्ष' है । यह बन्ध और मोक्ष की व्यवस्था भी एकान्त नित्यवाद में घटित नहीं होती है । वे संयोग - विशेष को बन्ध कहते हैं । अप्राप्त पदार्थों की प्राप्ति को ही वे संयोग बताते हैं । यह संयोग एक अवस्था को त्याग कर दूसरी अवस्था को प्राप्त करने पर ही सम्भव है ।
अतः नित्य आत्मा में अवस्था भेद के कारण बन्ध और मोक्ष की व्यवस्था नहीं बन सकती । एकान्त नित्य स्वीकार करने पर बन्धक कर्मों का बन्ध सम्भव नहीं है ।