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स्याद्वादबोधिनी-१६६
अतः नित्य एकान्तवादियों को 'स्यात् नित्यः पदार्थः' ऐसा स्वीकार करना चाहिए। स्यात् पद के सन्निवेश से उक्त दोष सम्भव नहीं है, स्याद्वाद स्वीकार करने पर दोष नहीं है, क्योंकि ये दोनों भोग (सुख-दुःखात्मक) सदैव पर्याय से होते हैं, क्रमशः होते हैं, एक साथ नहीं होते । ___ सुख एवं दुःख की उत्पत्ति में क्या कारण है ? ऐसी जिज्ञासा का समाधान यह है कि सुख-दुःख की उत्पत्ति में कर्म कारणरूप हैं। वे कौन-कौन से कर्म हैं ? सातावेदनीय और असातावेदनीय कर्म ही सुख तथा दुःख के कारण हैं। जहाँ सातावेदनीय कर्म का उदय होता है, वहाँ सुख तथा जब असातावेदनीय कर्म का उदय होता है तब दुःख का अनुभव होता है ।
कर्म, फल प्रदान करके निवृत्त हो जाते हैं। अतः परवादियों को निज लक्षण में 'स्यात्' पद का सन्निवेश करना चाहिए, जिससे किसी प्रकार की सैद्धान्तिक विसंगति न हो। पुण्य-पाप के सन्दर्भ में भी ऐसा ही समझना चाहिए।
पुण्य-पाप से होने वाले सुख-दुःख भी नित्य एकान्तवाद में नहीं बन सकते । सुखानुभवरूप क्रियात्मक परिणाम पुण्य कर्म के निमित्त से तथा दुःखानुभवरूप क्रियात्मक