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स्याद्वादबोधिनी-१६८
सिद्धे न तो भवतः । कारणाऽभावात् कार्याभाव इति नियमः । अतः अपेक्षावादेनैवं सर्व कार्य सुव्यवस्थितं भवति, नैव हठवादेन, कदाग्रहेण वेति दिक् । ___ भवद्भिभिन्नमार्गानुसारिभिः दुर्नयवासनावासितखड्गेन निखिलं जगत् विलुप्तं विनाशितं यद्वा छिन्नमिति भावः ।
- भाषानुवाद - एकान्तवादियों के विशिष्ट दोषों को पुनः उजागर करते हुए कलिकालसर्वज्ञ प्राचार्यप्रवर श्री हेमचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज सर्वलोकोपकारक विश्व विभु श्री जिनेश्वर भगवान् की स्तुति करते हुए कहते हैं
* श्लोकार्थ-एकान्तवाद को स्वीकार करने पर सुखदुःख का उपभोग, पुण्य-पाप तथा बन्ध-मोक्ष की समीचीन व्यवस्था नहीं बन सकती।
9 भावार्थ-नैकान्तवाद इति । नित्य एकान्तवाद मानने पर सुख-दुःख की उपभोग व्यवस्था नहीं बन सकेगी। क्योंकि नित्य का नाश नहीं होता है। जब तक एक सुख या दुःख का विनाश नहीं होता दूसरे के लिए अवसर नहीं रहता है।