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स्याद्वादबोधिनी-१६६
सर्वज्ञ विभु श्री जिनेश्वर भाषित अनेकान्तवाद (स्याद्वाद) मानने पर उक्त किसी प्रकार के दोषों की सम्भावना नहीं है, क्योंकि श्री जैनदर्शन-जैनमत में तो. पदार्थ कथंचित् नित्य, कथंचित् अनित्य आदि रूप है ।
सारांश यह है कि-उक्त प्रकार से नित्यकान्तवादी एवम् अनित्यकान्तवादी पारस्परिक कलह से स्वयं परास्त हो जाते हैं, तथा श्री जिनेन्द्रभाषित सार्वभौम सिद्धान्त स्याद्वाद विजयी होता है। यह निष्कण्टक राजमार्ग की भांति सभी को प्रादरणीय है। साथ ही यह समन्वयवाद भी है; कलहदायक एकान्तवादियों के लिए समन्वय सूत्र भी है ॥ २६ ।।
[ २७ ] साम्प्रतमेकान्तवादिनां विशिष्टदोषानाविष्करोत्याचार्य:
मूलश्लोकःनैकान्तवादे सुख-दुःख-भोगौ,
न पुण्य-पापे न च बन्ध-मोक्षौ । दुर्नीतिवादव्यसनासिनवम् ।
पविलुप्तं जगदप्यशेषम् ॥ २७ ॥