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स्याद्वादबोधिनी-१६५ को नित्यता विनष्ट हो जाती है, क्योंकि पदार्थ की भिन्नभिन्न अवस्थाओं का क्रम से प्रभाव होते रहना ही अनित्यता का लक्षण है ।
यदि आप ऐसा कहते हैं कि पदार्थ नित्य होने पर भी क्रमवर्ती सहकार के कारणभूत अर्थ को अपेक्षा करता हुआ विद्यमान रहता है और पश्चात् उस सहकारी कारणभूत पदार्थ को प्राप्त करके क्रम से कार्य करता है तो यह कथन युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि नित्य पदार्थ के विषय में नित्य पदार्थ को अपनी अर्थ क्रिया करने में प्रवृत्त करने के विषय में सहकारी कारणभूत पदार्थ की अपेक्षा करने पर, वह सहकारी कारणभूत पदार्थ भी नित्य होने के कारण अकिञ्चित्कर होने से, अन्य सहकारी कारणभूत पदार्थ की अपेक्षा करनी पड़ेगी।
इस प्रकार अन्यान्य सहकारी कारणभूत पदार्थों की अपेक्षा करने के कारण अव्यवस्था दोष (अनवस्था) प्रकट हो जायेगा। नित्य पदार्थ युगपत् (एक साथ) भी अर्थक्रिया नहीं कर सकते, प्रत्यक्ष विरोध के कारण। अर्थक्रिया क्रमशः होती है। अर्थक्रिया को एक काल में कदापि नहीं देखा जाता है।